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आहिस्ता-आहिस्ता….

यह सिलसिले ये रासते
यह बारीश मे भीगती चाहते
वह खामोशी वह बाते
वह पलको पर लिखी आयते

कैद तस्वीर-ए-आइने मे गुम से होते अक्स
अधखुली आँखे नींद को समेटकर याद करते वो शख्स
ठहरे झील मे बढ़ते दायरो मे बूंदे
उन बूंदो की लकीरो मे दम तोड़ते मेरी रूह की आहे
कुछ मिट्टी मे तो कुछ खुशबू मे
तो कुछ हवाओ मे तंज करती राहे
तो कही फिकरे कसते तन्हा आकाश की निगाहे

मेहताब की ख्वाहिश मे निशा का सबब ढूढते हम कही
बस एक सन्नाटे की खोज मे है इस शोर मे हम यही
गुमनाम आरज़ू का सदमा अंजाम पर चल पढता है फिर वही
पर हर अल्फाज़ रूख पे नकाब लिए समझाते है
अब वह कुछ नही…

मेरी आवारगी के नशे मे ज़खम बनते नासूर
शायद कसूर नही है मेरा किस्मत का
यह तो बस दिल के है बदलते तासूर

शमा कि साँसो मे सूखते होठ अहिस्ता-अहिस्ता
बिखरे रेत पैरो से जूड़ते अहिस्ता-अहिस्ता
सेहरा मे गुम होते आशियाँन आहिस्ता-आहिस्ता
देर से सही हमे अश्को से इश्क होता आहिस्ता-आहिस्ता….