साहील…

वास्तवीकता के हदो से दूर
कल्पना के पास
हवा मे घुलते कोशिशो के अहसास
छलकते रंगो मे ढलता दीन
नीशा के आहटो पर सीसकती शाम

लम्हो के सागर मे उभरती डूब्ती परछाई
अचल संवेदनओ पर लकीरे गहराई
कीसी अजनबी, अदर्श्य स्पर्श पर मुस्कुराते अधर
थमने सा लगता है शबदो का असर
आँखो मे भी क्षितीज(kshitij) दूर कही
तभी प्यासा हर्दय मर्गतर्षणा मे कह उठथा है
कही यह साहील तो नही ॥

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